!! गुरु भक्ति माला – 108 !!
गणेश वंदना (श्लोक) सरस्वती वंदना( श्लोक) गुरु वंदना( श्लोक) प्रस्तावना: –
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं सब वृक्षों की लेखनी बनाऊं और पूरी धरती का कागज करूं तो भी भगवान राम की महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता. इसी प्रकार से सच्चे गुरु की महिमा उनके जीवन चरित्र का भी वर्णन असंभव है. “ हरि अनंत हरि कथा अनंता.” इस पुस्तक का मूल उद्देश्य गुरु की महत्ता को, सात्विकता को , सत्य को स्थापित करना है. सद्गुरु तूमी वाले दादाजी की वाणी जो बार बार उनसे ही सुनी गई, जीवन चरित्र की घटनाएं जो प्रत्यक्ष देखी गई, अनेकानेक लोगों से बारंबार सुनी गई, उनको मोतियों में, 108 मनको में पीरों कर संकलन के तौर पर माला के रूप में प्रस्तुत करने का यह प्रयास मात्र है. मन को गुरु – भक्ति की माला में बांधने का यह प्रयास है. “ कर का मनका डार दे मन का मनका फेर.” भगवत गीता कहती है, “ अज्ञानी मनुष्य पशु के समान होता है.” हमारा ज्ञान, हमारी बुद्धि, हमारा विवेक हम से अधिक प्रज्ञावान की तरफ आकर्षित होता है और श्रद्धावान बुद्धि गुरु की तरफ नतमस्तक हो ही जाती है.
गुरु का सत्संग जो है वही उसका प्रसाद है. यह गुरु भक्ति माला 108 और इसके मनकों का संकलन सत्संग का ही फल है. मनुष्य मात्र की प्रवृत्ति बांटने की होती है. जिस प्रकार से मंदिर में प्रसाद मिलता है उसी प्रकार से गुरु के आश्रम से सत्संग का प्रसाद मिलता है. “राम नाम की लूट है लूट सके तो लूट.” इस संकलन में गुरुजी तूमी वाले के नई पीढ़ी के चेलों और पुरानी पीढ़ी के चेलों मैं दोनों का बड़ा मनोहर समन्वय रहा. सत्य को बल देने के लिए साक्षी की आवश्यकता होती है. नई पीढ़ी के संकलन को पुरानी पीढ़ी ने सत्यापित कर अपनी मुहर लगा दी है. अनगिनत शिष्यों की संख्या के कारण हम किसी का नाम प्रकाशित नहीं कर रहे है. इसका श्रेय सबको बराबर जाता है.
मां के लिए सब बच्चे समान होते हैं, गुरु के लिए सब शिष्य समान होते हैं. किसान तो खेत में सब बीज बराबर होता है फिर भी कहा गया है, “गुरु की गति गुरु जाएगा और चेले की गति चेला.” पुस्तक लिखने का यह एक और उद्देश्य है की आने वाली नई पीढ़ी (Young Generation) को यह पता लगे कि डेढ़ सौ बरस पूर्व ऐसा भी कोई हमारे बीच हमारे पास के प्रांत का ही वीर और साहसी मनुष्य हुआ है जो भगवान बुद्ध सामान, श्रीराम समान, श्रीकृष्ण समान लोभ और भोग का त्याग करके वैराग्य की भावना रखकर संसार में गुरु को ढूंढने निकल पड़ा हो! जो हीन भावना, जात – पात, भेदभाव से ऊपर उठकर सनातन धर्म का मर्म जानता हो और उस पर चल निकला हो! गुरुजी के ऐतिहासिक जीवन (Historic Life) में उन्होंने लगभग जन्म के समय 1857 की क्रांति, हैजा और प्लेग जैसी महामारीयाँ, प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध, गुलाम और आजाद भारत, विभाजन का समय, औद्योगिक क्रांति से लेकर आधुनिक काल की सूचना क्रांति के मोबाइल फोन पर भी बात करी है.
उनके जीवन का सार यह था कि मनुष्य की भलाई मातृ – स्वरूप प्रकृति में लय होने में हैं. प्रकृति के विपरीत जाओगे तो भुगतान अवश्य करोगे. सतोगुण को त्याग कर रजोगुण और तमोगुण को महत्व दोगे तो कलयुग में भुगतान के लिए तैयार रहो. गुरुजी ने अपने साधारण शरीर से असाधारण कार्य साधना करी थी, इसीलिए उनके गुरु ने उनका नाम “ लोहे का आदमी” रखा और पुस्तक का शीर्षक भी यही रखा गया है.