मनका-21
|| हाथ में तूमी बगल में सोटा और चारों खूट जागीरी में ||
तारानगर पंछी तीर्थ में गुरुजी ने तो अंत समय में आकर विश्राम किया था. इसके पहले उनका सिर्फ और सिर्फ भृमण था. वे सदा चलते रहते थे और उनके कई मुकाम थे.गुरुजी सन्यास जीवन मेंअग्नि अखाड़े से संबंधित जरूर थे परंतु ना तो वे किसी के शिष्य बने और ना ही किसी को शिष्य बनाया.अग्नि देव को वह मुख्य मानते थे कहते थे जैसे धूने में अग्नि है ऐसे ही शरीर में भी अग्नि है. तारानगर पंछी तीर्थ में प्रारंभ से ही अग्नि पुराण अनुसार निर्मितअग्नि देवता का मंदिर है जिन के दो मुखऔर 7 हाथ हैं. उनकी साधना इस स्तर की थी कि जहां भी अगर वे तीसरे दिन रुक जाते थे तो उनकी आसन जल जाती थी. इसके कई किस्से हैं.
उन्हें जब कभी किसी ने मन से स्मरण किया तो वे वहीं प्रकट हो गए. वे कभी किसी को यह बता कर नहीं जाते थे कि हम कहां जा रहे हैं और ना ही किसी की पूछने की हिम्मत होती . कहते हैं “संत सुखी बिछडंत मही”.उनकी तो चारों दिशाएं पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण मानो बस में थी. पुनश्च जलती अग्नि पवित्र होती है बहता पानी पवित्र होता है और चलता साधु पवित्र होता है.
!!संकलन- तारानगर- पंछी तीर्थ!!
ब्रह्मलीन परमहंस संत श्री तूमीवाले दादा जी की जय!!
||गुरु -भक्ति -माला – 108||